सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि कोई भी किरायेदार, जिसने किसी मकान मालिक से वैध रेंट डीड (किरायानामा) के तहत मकान या दुकान किराए पर ली है, वह बाद में उस मकान मालिक के स्वामित्व पर सवाल नहीं उठा सकता। यह फैसला 1953 से चल रहे एक विवाद को लेकर जस्टिस जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुनाया।

मामले में वादी रामजी दास की बहू ने दुकान पर मालिकाना हक का दावा किया, जबकि किरायेदारों के उत्तराधिकारी ने इसे खारिज किया। निचली अदालतों ने वादी की याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन फैसलों को गलत और भ्रामक बताया। कोर्ट ने 1953 की रिलिंक्विशमेंट डीड को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जो स्वामित्व साबित करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब किरायेदार वैध किरायानामा पर कब्जा करता है और नियमित किराया देता है, तो वह बाद में मालिकाना हक पर चुनौती नहीं दे सकता। इसके अलावा, कोर्ट ने वसीयत की वैधता को भी सही माना, और कहा कि केवल पत्नी का उल्लेख न होना संदेह करने का उचित कारण नहीं है।

कोर्ट ने किरायेदारों को छह महीने का समय दिया है, जिसमें वे बकाया किराया चुकाकर दुकान खाली करें। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो मकान मालिक सारांश निष्कासन की कार्रवाई कर सकते हैं।

यह फैसला मकान मालिकों के अधिकारों को सशक्त करता है और स्पष्ट करता है कि किरायेदारी संपत्ति पर ‘अनुमत कब्जा’ है, ‘विरोधी कब्जा’ नहीं। साथ ही, नियमावली के अनुसार मकान मालिक को किराए की दर बढ़ाने और संपत्ति का उचित उपयोग करने का अधिकार है।

इस फैसले से किरायेदार और मकान मालिक दोनों ही पक्षों को न्यायपालिका की स्पष्ट सोच और कानून के संरक्षण का पता चलता है और मकान मालिकों को राहत मिलती है।सुप्रीम कोर्ट ने किरायेदारों के खिलाफ मकान मालिक को स्वामित्व वसूलने का मजबूत अधिकार दिया है।

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